
कहानी ‘बिरादरी बाहर’ में अंतर्जातीय विवाह की परिणति दिखाई गयी है. कहने को तो हमारा समाज आगे निकल गया है, लेकिन अभी भी बहुत सी ऐसी घटनाएँ हैं जो हमें सोचने पर मजबूर करती हैं. कहानी में सरिता और दुर्गेश के प्रेम के कारण उनके माता–पिता को बिरादरी से बाहर कर दिया जाता है. साथ ही चालीस हजार का दंड स्वरूप भुगतान और पूरे यादव समाज को भोज देना पड़ता है. यही नहीं, कहानी के अंत में सरिता और दुर्गेश के बेटे को समाज ‘दुरंगिया’ नाम से पुकारता है. इस कहानी के माध्यम से लखन ने समाज के दकियानूसी चरित्र पर प्रश्न उठाया है, जो अवसर का लाभ उठा कर पैसे हड़पने की ताक में रहता है. सरिता के माता–पिता गंगा और मंगलू की कहानी में एक झलक मिलती है, जिसके माध्यम से बेबस माँ – बाप की विपदा का अंदाजा लगाया जा सकता है. कहानी छोटी है लेकिन बेहद मार्मिक है. भाषा सुगठित है और कम शब्दों में घटना क्रम को बयाँ करने में समर्थ है. -डॉ. मधुलिका बेन पटेल , सहायक प्राध्यापक , हिन्दी विभाग ,तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय, तिरुवारूर
बिरादरी बाहर
ओसारे में दो कोठे का मकान था.दूसरे पहर सत्तर बरस की लुहरी अचानक चिल्ला उठी ‘चोर ! चोर !! चोर !!!……
आस-पास के सभी यादव और अन्य परिवार, लालटेन लेकर घर के बायीं ओर जहाँ पुआल के तीन पींड रखे थे, छान डाला… घर के आगे खरपतवार के साथखड़ी हरी झाड़ियोंमें भी झांक आए पर चोर का पता न चला.
इक्कीस बरस के रोहित ने झल्लाकर कहा,‘डोकरी(बुढ़िया) सठिया गई है.’
लुहरी: मैं सठिया नहीं गयी बेटा… सब पता है मुझे.’
‘सब पता है!! हुंह…’ रोहित चिढ़कर बोला.सत्रह बरस की सरिता चिंतित स्वर में रोहित से बोली, ‘भैया चोर का कुछ पता चला ?
‘नहीं छुटकी… मुझे तो लगता है दादी को भरम हुआ.’
“ हूँ… आप सही कह रहे हैं भैया’
चोर के न मिलने पर सभी परिवार वापस चले गये. देर रात नींद सब पर हावी हो गई. सुबह होते ही रोहित की पत्नी मिथिला तालाब जाने की तैयारी करने लगी.उसने सरिता से कहा, चलो सरिता ! तालाब चलते हैं.’सरिता बोली, ‘रुकिए भाभी… सूखा कपड़ा ले कर अभी आती हूँ .’रास्ते में चलते – चलते मिथिला की नजर सरिता के बढ़े हुए पेट की ओर गई.
“ सरित ! तेरा पेट इनता फूला क्यों है ?“
“ नहीं भाभी ! आपको यूँही लग रहा है…कुछ नहीं है.’
‘तू नवीं में फेल कैसे हुई … इससे पहले पढ़ने में तो अच्छी थी तू.’
“कुछनहीं भाभी….ऐसे ही.’
इसके अलावा मिथिला और सरिता के बीच कोई संवाद नहीं हुआ. रास्ते भर सरिता सहज न हो सकी. मिथिला ने भी कुछ न कहा पर मन ही मन किसी उधेड़बुन में फंसी रही.इस घटना के बाद कई दिन बीत गये. चोर वाली बात भी पुरानी हो गई. साँझ दिन पर हावी हो रही थी. उजियारा अँधेरे में खोता जा रहा था. चिड़ियों के चहचहाने की आवाज अभी भी घने झुरमुटों से आ रही थी. वहीं झुरमुट की ओट में लम्बा, छरहरे बदन वाला लड़का दुर्गेश सरिता से कुछ बातें कर रहा था, ‘तीन महीने से ऊपर हुआ …दवा खाती हो …पर कोई असर नहीं…क्यों?
सरिता के माथे पर बल पड़ गये, ‘मैंने दवा लिया था ….पर कोई असर नहीं….जाने क्या हो रहा…’
‘अब तो डॉक्टर भी कहता है कि गर्भपात में जान का खतरा है .’
सरिता के चहरे पर पसीने की बूंदे चमकने लगीं, हकलाते हुए बोली, ‘…तो अब क्या करें?’
‘अब तो एक ही रास्ता है….. तू और मैं कहीं………..’
सरिता के मन को थोड़ी राहत पहुंची लेकिन, ‘भाग जाना’कहना एक बात थी और भाग कर सचमुच चले जाना दूसरी बात. आनन–फानन में कुछ न हो सका. आस-पड़ोसकी नजर तो रात के अँधेरे में भी खटका हो तो बिल्ली की तरह झपट लेती है. सरिता और दुर्गेश की बात आग की तरह रतनपुर गांव में फैल गयी.आते-जाते लोग हंसते और मज़ाक बनाते. गाँव की महिलाओं को तो जैसे बहुत बड़ी खबर हाथ लगी थी. रोहित ने अम्मा-बाबू को घर की विपदा की जैसे–तैसे खबर की. बदहवास वे दोनों भोपाल से वापस आ गए. अम्मा गंगा के मुख से आते ही धारा की तरह गालियोंकी बौछार फूट पड़ी, ‘करम फूट गै….हाय…क्या एही लिए पाल-पोसकर बड़ा किया…. पढ़ लिखकर हमारा नाक कटाए दीहिस….’
सब लोग आँगन में जमा थे.गंगा जोर-जोर से कोस रही थी. रोहित और मिथिला चुप खड़े थे. सरितासिर गाड़े पत्थर की मूर्ति बनी थी.पूरे गाँव में यह बात फैल गई औरयादव समाज को पता न चले यह कैसे हो सकता था. समाज की बैठक में मंगलू को सपरिवार बिरादरी से बाहर कर दिया गया और कहा गया कि यदि वह समाज को चालीस हजार का दंड,दाल-भात की दावत दे तभी वह वापस आ सकता है.मंगलूबैठक से वापस आया और धम से जमीन पर बैठ गया. उसकेह्रदय से दुःख की धारा फूट पड़ी, ‘अभी तो नमिता कीशादी के कर्ज से नहीं उबरे…. इस आफत का क्या करूँ ….’ कर्ज की बात याद आते ही गंगा बिफर उठी, ‘हाय!!! का करें …कलमुंही जो भाग में लिखी थी…बीघा भर जमीन बची है …वोभी रेहन रख जाएगी. समूल खा गयी छोरी ….’
बेबसमंगलू को खेत रेहन रख दंड भरना पड़ा. समाज के लोगों ने छक कर खाया और उसे पुनःसमाज में शामिल करने की हरी झंडी दे दी. सरिता को लेकर दुर्गेश भोपाल चला गया औरतीन साल बाद लौटा तो मंगलू के नाती के साथ.दुर्गेश घर वापस आकर खुश था. उसकेबेटे मुकेश को भी दादा-दादी मिल गए थे, पर उसे गली में आते-जाते देख कोई उसके नाम से न पुकारता. सभी उसे ‘दुरंगिया’… ‘दुरंगिया’ कहते. पड़ोस का बेटा भी नाच-नाच कर दुलंगिया! दुलंगिया!! कहता.एक दिन मुकेश अपनी माँ से कह बैठा, ‘माँ! मुझे मुकेछ कोई नहीं कहता. छब मुझे ‘दुलंगिया’ कहते हैं.’ सरिता उस नन्हें बच्चे की बात का कोई जवाब न दे सकी. बस घंटों सोचती रही ..कौन‘बिरादरी बाहर’…